शनिवार, 29 जून 2024

संपादकीय

 

साहित्य की लोकप्रियता और लोकप्रिय साहित्य

डॉ. पूर्वा शर्मा

लोकप्रिय साहित्य से क्या आशय है? उत्तर बताना ज्यादा मुश्किल नहीं, और साहित्य के क्षेत्र में तो यह उत्तर सर्वविदित ही कहा जा सकता है, अतः लोकप्रिय साहित्य की एक बुनयादी एवं सामान्य पहचान को लेकर कुछ कहने के लिए खास मेहनत-मशक्कत अर्थात् विशेष दिमागी व्यायाम आवश्यक नहीं। जो साहित्य लोक के, समाज के मंच से एक बड़े और विशाल पाठक वर्ग में पढ़ा जाए, पसंद किया जाए, सराहा जाए, पाठकों की रुचि से जिसका मेल हो, साथ ही उनमें रुचि पैदा करें और उसकी संतुष्टि भी आदि... आदि। असल में उक्त बिन्दु की अपेक्षा लोकप्रिय साहित्य की संकल्पना, उसकी क्षमता, वस्तु-संवेदना को लेकर उसके भेद, उससे संबद्ध प्रचलित विविध धारणाओं-मान्यताओं पर विचार-पुनर्विचार जैसे मुद्दों पर विमर्श ज्यादा आवश्यक और उपयोगी हो सकता है। ‘साहित्य की लोकप्रियता और लोकप्रिय साहित्य’ विषय की व्याख्या एवं तत्संबंधी विवेचन-विश्लेषण के प्रसंग में सबसे पहले कुछ स्पष्टताएँ आवश्यक हैं – पहली तो यह कि लोकप्रियता के संदर्भ में जिस साहित्य को हम यहाँ ले रहे हैं वो लुगदी, सतही, सस्ता, बाजारू, फुटपाथी, पटरी, घासलेटी, चवन्नी छाप आदि अभिधानों से जाना-पहचाना जाने वाला साहित्य नहीं है। माना कि लोकप्रिय साहित्य की एक धारणा, जो ज्यादा रूढ कही जा सकती है, इस प्रकार के साहित्य से जुड़ी है। दूसरी बात – एक रूढ एवं प्रचलित मान्यतानुसार यह साहित्य ज्यादातर जासूसी, अय्यारी, अपराध और रोमांच की सनसनीखेज़, प्रेम व सेक्स (कामसंबंध), चमत्कारपूर्ण कथा-प्रसंगों, कोरा उपदेश, नीति-शिक्षा, काल्पनिक कहानियों जैसे विषयों से संबंधित होता है। इसी संदर्भ में तीसरी बात यह कि कतिपय अपवाद छोड़कर इस तरह का साहित्य पाठक का आनंद-मनोरंजन तो करता है पर उसका प्रभाव स्थाई नहीं होता। इस तरह का साहित्य पाठक को सिर्फ़ आनंद प्रदान कर सकता है दृष्टि नहीं। एक और महत्त्वपूर्ण बात कि अधिकांश इस तरह के साहित्य को पाठक अपने मन-बहलाव तथा टाइम पास के लिए कुछ समय पढ़ता है और उसे भूल भी जाता है। जैसे बस-ट्रेन में यात्राओं के दौरान अपने समय को काटने के लिए पढ़ा जाने वाला साहित्य।  

‘समालोचन’ में प्रकाशित अपने ‘साहित्य, लोकप्रिय साहित्य और कुछ पूर्वाग्रह’ लेख में दिनेश श्रीनेत लिखते हैं –“लोकप्रिय साहित्य का अगर स्थूल वर्गीकरण करें तो दो बातें सारी दुनिया में समान पाई जाएँगी – पहली लोकप्रिय साहित्य में रोमांचक यात्राओं, भावुक और उदात्त प्रेम कहानियों, भय, रहस्य और अपराध की प्रमुखता होती थी।  दूसरे, इसका विस्तार मूल रूप से एक ही विधा यानी कि उपन्यास में हुआ। यानी कि आधुनिक गल्प को अगर समझना है तो उसे लोकप्रिय संस्कृति के अध्ययन के बिना नहीं समझा जा सकता।  उपन्यास विधा ने ही लोकप्रिय साहित्य का नेतृत्व किया…. उपन्यास निर्विवाद रूप से अपने आरंभ से लेकर आज तक साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा है।” दरअसल हम यहाँ जिस साहित्य की लोकप्रियता पर विचार कर रहे हैं वह ऊपर निर्दिष्ट विविध नामाभिधानों तथा विषय वस्तु वाले साहित्य को लेकर नहीं बल्कि उस कला संयुक्त साहित्य, स्तरीय साहित्य, कलात्मक-सृजनात्मक साहित्य को लेकर है जो मनोरंजन एवं कलागत आनंद के साथ-साथ मानवीय मूल्यों, संस्कारों-संस्कृति से परिचित कराते हुए पाठक की भावनाओं और विचारों को प्रभावित करता है, परिष्कृत करता है। कलात्मकता, सामाजिकता और राष्ट्रीयता तीनों संदर्भ में इसका प्रभाव ज्यादा और स्थाई होता है। इस तरह के साहित्य का उद्देश्य पाठक के मनबहलाव एवं  मनोरंजन तक ही सीमित नहीं बल्कि इससे कुछ ऊपर व विशेष होता है। साथ ही, इस प्रकार के साहित्य की लोकप्रियता की चर्चा हम सिर्फ उपन्यास तक ही मर्यादित रखना नहीं चाहते।

सामान्यतया लोकप्रिय साहित्य को लेकर कहा जाता है कि लोकप्रिय साहित्य या पोप्यूलर लिटरेचर वह साहित्य हैं जो अधिकाधिक पाठकों-श्रोताओं-दर्शकों द्वारा पढ़ा-सुना-देखा जाए। यानी समाज या लोक के संदर्भ में बहुत ही बड़े पैमाने पर लोगों का लगाव व जुड़ाव, इस साहित्य से होता है। इसी क्रम में यह भी कहा जाता है कि अत्यधिक संख्या में छपने वाली व बिकने वाली साहित्यिक पुस्तकों को लोकप्रिय साहित्य के अंतर्गत रखा-देखा जाता है। इस संदर्भ में “बड़ी मात्रा में बिकने वाली और बेस्टसेलर सूची में आने वाली किताबें परिभाषा के अनुसार लोकप्रिय होती हैं, लेकिन सिर्फ बिक्री के आँकड़े ही किसी साहित्य को लोकप्रिय साहित्य मानने के लिए पर्याप्त मापदंड नहीं हैं।” इसमें पाठकों की रुचि, रुचि के अनुरूप-अनुकूल विषय वस्तु, साहित्यिकता-सर्जनात्मकता सामाजिकता जैसे बिन्दु विशेष विचारणीय हैं।

यदि लाखों-करोड़ों लोगों द्वारा पढ़ा जाना ही लोकप्रियता है तो लोकप्रियता के इस पैमाने को लेकर हम यहाँ साहित्य की लोकप्रियता पर विचार नहीं कर रहे बल्कि कुछ और बिंदुओं की भी चर्चा करना चाहते हैं।

दरअसल साहित्य के क्षेत्र में लोकप्रियता को एक साहित्यिक अवधारणा के रूप में देखना-मानना या इसे एक साहित्यिक मूल्य के रूप में स्वीकार करते हुए इसके निकष पर साहित्य को देखना-परखना, मूल्यांकन करना एक बहस का विषय रहा है, परंतु लोकप्रियता की शर्तें या कहिए कि इसकी (लोकप्रिय साहित्य की) विशेषताओं को लेकर ज्यादा संदेह व बहस नहीं है। मतलब एक साहित्यिक मूल्य व अवधारणा के रूप में लोकप्रियता की चर्चा एक अलग बात है और इसमें मतैक्य न होना संभव है परंतु सिर्फ ‘लोकप्रिय साहित्य की पहचान’ पर बात करना, जो एक तरह से सुलझा हुआ विषय है।

कुछ समय पूर्व प्रसार भारती के दूरदर्शन मंच से एक परिचर्चा प्रस्तुत हुई थी, जिसका विषय था –‘लोकप्रियता : अवधारणा व साहित्यिक मूल्य’ परिचर्चा में शामिल थे हिन्दी के तीन विद्वान-आलोचक – प्रो. मैनेजर पाण्डेय, प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और प्रो. गोपेश्वर सिंह। तीनों विद्वानों ने परिचर्चा में अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये। इसी परिचर्चा से कुछ विचार बिंदुओं को भी हम यहाँ रेखांकित करना चाहते    हैं –

सितंबर 1978 के धरातलपत्रिका के अंक में लोकप्रिय कविताविषयक परिचर्चा में कवि शमशेर बहादुर सिंह के मतानुसार लोकप्रिय कविता वही है जो हमारे अंदरूनी और परिवेशगत दुख-दर्द तथा उसके कारणों से पूरी तरह संबद्ध हो।

साहित्य की लोकप्रियता या पॉप्युलर साहित्य को क्या लुगदी, पटरी, सस्ता, सतही तथा बाजारू साहित्य से जोड़ा जाए?

आ. रामचंद्र शुक्ल के कथन का स्मरण – लोकहृदय में लीन होना सृजनात्मक कला का एक उद्देश्य - एक लक्ष्य।

साहित्य का लोकप्रिय होना, कलात्मक होना, दोनों में कोई अंतर नहीं है। शर्त यह है कि रचनाकार अपने सृजन में यथार्थ को इस तरह छुए कि जनचेतना को और जन संवेदना को वह स्पष्ट कर सके ।

लोकप्रिय साहित्य या साहित्य की लोकप्रियता जो एक समाजशास्त्रीय धारणा है।

लोकप्रियता को क्या साहित्यिक अवधारणा माना जाए? इसका कोई साहित्यिक मूल्य है? लोकप्रियता मूल्य के रूप में विवाद का विषय बनी हुई है। एक साहित्यिक मूल्य के रूप में लोकप्रियता की बात करना एक अलग बात है और लोकप्रिय साहित्य की बात करना अलग बात ।

कविता या साहित्य का दूर तक जाना, मतलब आम लोगों तक पहुँचना और लम्बे समय तक उनके बीच रहना। साहित्य की इस क्षमता की कुछ अनिचार्य शर्तें हैं – • आम जनता की वास्तविकताओं को, साथ ही उनकी आकांक्षाओं को भी रचनाकार अपनी रचना में लाएँ। • पाठक और रचना के बीच एक स्तर पर (पाठक की रुचि, क्षमता को लेकर) एक तरह की समानधर्मिता होनी चाहिए । • कविता की संरचना की जटिलता तथा भाषा की दुरुहता भी लोकप्रियता को बाधित करती है। सामान्य पाठक को जब सहज-सरल भाषा में, संरचना में ऐसी संवेदना व सोच मिलती है जो उसे अपनी लगती है, उसे वह पहचानता है। इस वजह से कविता लोकप्रिय होती है।

• बाजार में अधिक बिकने वाला जासूसी, अपराध संबंध, अय्यारी साहित्य लोकप्रिय हो सकता है, परंतु है वह बाजार के लिए जिसकी लोकप्रियता अस्थाई होती है। यहाँ तो उस साहित्य की बात है जो लोकप्रिय भी है और कलात्मक भी, जिसकी लोकप्रियता स्थाई होती है। तुलसीदास, प्रेमचंद, नागार्जुन, ब्रेख्त, टॉलस्टॉय, गोर्की, दोस्तोवस्की आदि आदि....।

इस परिचर्चा में एक अवधारणा व साहित्यिक मूल्य के रूप में लोकप्रियता पर विचार जरूर किया गया, परंतु इसमें उक्त दोनों बिंदुओं की एक शास्त्रीय-सैद्धांतिक चर्चा की अपेक्षा लोकप्रिय साहित्य तथा साहित्य के लोकप्रिय होने की शर्ते व विशेषताओं को विस्तार से तथा अच्छी तरह से स्पष्ट किया गया है।

वैसे साहित्य की लोकप्रियता का मुद्दा समाजशास्त्रीय विचार-दृष्टि से विशेष जुड़ा है। साहित्य के विवेचन-मूल्यांकन के एक सिद्धांत-प्रतिमान के रूप में वह ज्यादा चर्चा में नहीं रहा।

लोकप्रियता के आधार पर ही किसी रचना के स्तर का, उसके सफल सार्थक होने या न होने का निर्णय करना सामाजिक दृष्टि से तो बराबर है पर साहित्यिक-कलागत परिप्रेक्ष्य में बात करने में इसे लेकर और भी शोध-समीक्षा की आवश्यकता है।

साहित्य में लोक के, समाज के जीवन यथार्थ के साथ-साथ लोगों की आशाओं-आकांक्षाओं तथा स्वप्नों को लिए हुए, साथ ही इनसे इतर पर उनसे संबद्ध अन्य वस्तुओं को लेकर सर्जक की शाब्दिक प्रतिक्रिया कुछ इस तरह की हो जिससे कि लोक के हृदय की ऋजुता व संवेदना तथा मन-चित्त की चेतना व समझ ज्यादा विकसित हो। ऐसे साहित्य में लोकप्रिय होने की क्षमता अधिक होती है। जो साहित्य हमारे हृदय को, हमारे मस्तिष्क को तृप्त करे, हमारे अंतर्बाह्य जीवन को प्रभावित करे, उसकी लोकप्रियता को लेकर संदेह नहीं। अर्थात संवेदना व विषय वस्तु को लेकर लोक से जुड़ाव तथा लोक में गहरी पैठ-प्रवेश लोकप्रिय साहित्य की ख़ासियत होती है।

ऊपर जिस परिचर्चा का जिक्र करते हुए उसके कुछेक अंश हमने दिए हैं, जिसमें लोकप्रियता के साधक व बाधक / सहायक व विरोधी दोनों प्रकार के तत्त्वों की ओर इशारा किया गया है। लोक‌प्रियता के बाधक तत्त्वों के संबंध में आलोचक मैनेजर पाण्डेय के विचार जिसमें उन्होंने संरचना की जटिलता, भाषा की दुरुहता और रचना तथा पाठक में कभी-कभी विषयगत रुचि संबंधी समानधर्मिता का अभाव की बात की।

वैसे साहित्य में निरूपित-व्यक्त सभी विषय समाज के बड़े पाठक वर्ग की समान रुचि के मुताबिक तो संभव नहीं। कुछ विषय तो एक विशिष्ट पाठक वर्ग तक सीमित होते हैं, किंतु कुछ विषय ऐसे होते हैं जैसे – प्रेम, भक्ति, लोक में प्रसिद्ध कुछ सामाजिक-ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्र, जीवनानुभवों-जीवन यथार्थ, लोक की इच्छाएँ-सपने जिससे बड़े पाठक वर्ग का जुड़ाव-लगाव ज्यादा होता है। लेकिन ऐसे विषयों की प्रस्तुति के माध्यम-साधन भाषा-शैली-शिल्प की दुरुहता-जटिलता पाठक की आस्वादन प्रक्रिया में बाधक बनती है।  “कविता में जीवन के यथार्थ और अनुभव की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है –प्रत्यक्ष और सांकेतिक । एक में सीधा वस्तुपरक वर्णन होता है और दूसरे में अलंकारों, बिंबों, प्रतीकों तथा भाषा के अन्य इशारों के माध्यम से कवि यथार्थ और अनुभव की ओर संकेत करता है। प्रत्यक्ष रूप में चित्रित यथार्थ और अनुभव की पहचान सरल होती है, लेकिन जहाँ सांकेतिकता होती है वहाँ पहचान की प्रक्रिया कठिन हो जाती है।”(भक्ति- आंदोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, पृ. 294-295)

ऐसे अवसर पर कवि भवानीदादा की कुछ पंक्तियाँ भी स्मरण में आती हैं –

कलम अपनी साध

और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध

यह कि तेरी-भर न हो तो कह

और बहते बने सादे ढंग से तो बह

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख

और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख

चीज़ ऐसी दे कि स्वाद सर चढ़ जाये

बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाये

फल लगें ऐसे कि सुख रस, सार और समर्थ

प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ

रचना का, उसकी संवेदना-विषय वस्तु का समय सापेक्ष होना (वैसे कुछ विषय साहित्य के शाश्वत विषय ही रहे हैं) और आगे भी उसकी समकालीनता व प्रासंगिकता का बना रहना संभव है। समय की कसौटी पर खरा उतरने वाला साहित्य, अपने सृजनकाल और भविष्य के संदर्भ में भी जिसकी लोकप्रियता को क्षति नहीं पहुँचती ।

समाज से, आम जनता से कवि-लेखक का जुड़ाव जितना ज्यादा और गहरा होगा तो उसकी लोकप्रियता बढ़ी चढ़ी ही रहेगी। वैसे भी कथा-कहानियों से लोगों का जुड़ाव कुछ ज्यादा ही रहा है। पद्य रूप का साहित्य भी बड़े पाठक वर्ग को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करता ही रहा है, परंतु लोकप्रियता के मामले में काव्य की अपेक्षा कथा साहित्य थोड़ा आगे ही रहा है। उपन्यास की लोक‌प्रियता का प्रमाण है कि मध्यम वर्ग के पाठक पुस्तकालयों से ही नहीं बल्कि प्रकाशनों व शहरी बुकस्टाल से खरीदकर भी इसे पढ़ रहा है। कथा साहित्य की लोकप्रियता का एक और उदाहरण पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, कथा सरित्सागर की कहानियाँ हमारे साहित्य की अनमोल धरोहर है।  

शिष्ट साहित्य के साथ-साथ हम यह भी देखते हैं कि लोक साहित्य जिसके अंतर्गत लोकगीत, लोक कथाएँ, बहुत-सी गाथाएँ, लोक नाटक, पहेलियाँ, लोकोक्तियाँ, मुहावरे जो लोकजीवन का एक अभिन्न अंग रहा। लोक-कंठ लोक-ज़बान पर रहने वाला यह साहित्य लोक मनोरंजन का एक प्रमुख माध्यम रहा, जो कि  आज आधुनिकता, शहरीकरण के चलते हमारे इस साहित्य का प्रचार व महत्व जरूर कुछ कम हुआ परंतु वह हमारे जीवन से बिल्कुल दूर नहीं गया है।

साहित्य चाहे किसी भी ढाँचे में हो, किसी भी विषय-विचार-संवेदना से जुड़ा हो परंतु इसके प्रचार-प्रसार, ख्याति-प्रसिद्धि, लोकप्रियता की एक अनिवार्य शर्त है कि वह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचे, पाठक वर्ग को सुलभ हो। किसी साहित्य में लोकप्रिय होने की भरपूर क्षमता है पर वह समाज को सुलभ न हो, प्राप्त न हो तो? और अकाद‌मिक क्षेत्र के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े लोगों तक ही सीमित रहा तो उसकी लोकप्रियता बाधित होती है। मौखिक साहित्य-वाचिक साहित्य तो सीधे समाज से जुड़ता है, अतः इसका प्रभाव कुछ और ही होता है। परंतु बहुत सारा लिपिबद्ध साहित्य बड़े पाठक वर्ग तक नहीं पहुँचता। पाठकों को भौतिक रूप से वह सुलभ नहीं होता। साथ ही साहित्यिक पुस्तकें सस्ती भी होनी चाहिए।

“लोकप्रिय साहित्य की रचनाएँ बहुत कुछ प्रकाशन और संबंधित उद्योगों के भीतर होने वाले बड़े पैमाने पर उत्पादन, विपणन और वितरण की प्रक्रियाओं पर निर्भर हैं। आज, यह समस्या कम है। औद्योगिक क्रांति के बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रद्योगिकियों के विकास और परिवहन और संचार की बेहतर प्रणालियों के माध्यम से प्रकाशित कार्यों को अधिक व्यापक रूप से सुलभ बना दिया है।”

वैसे तो पाठक, श्रोता या दर्शक अपनी रुचि के अनुसार / अनुकूल ही साहित्य का वाचन-श्रवण करता है, आस्वादन करता है। लेकिन सर्जकों का तथा साहित्य के विशेष समीक्षकों-अध्येताओं का भी एक दायित्व  होता है कि वह पाठक को  रचना की ओर आकृष्ट करें।

कोई रचना या अपने सृजनकर्म को लेकर कोई सर्जक साहित्यिक मापदण्डों पर तो खरा उतरता है, कलात्मक पैमाने पर सफल-सार्थक कहा जा सकता है पर इसका मतलब यह नहीं कि लोकप्रियता की दृष्टि से भी उतना ही सफल है या होगा। असल में कलात्मकता और लोकप्रियता एक नहीं। लोकप्रिय साहित्य कलात्मक हो सकता है परंतु हर कलात्मक साहित्य लोकप्रिय होता ही है, इस तरह का दावा नहीं किया जा सकता, यह कोई अनिवार्य शर्त नहीं है।

काव्यं यशसे...’ सर्जक के कर्म के मूल में यश या ख्याति- कीर्ति यानी लोकप्रियता की कामना तो रहती ही है। अंग्रेजी में कहा गया है- Fame is the Last imfirmity of noble minds’ मतलब ख्याति की कामना बड़े से बड़े लोगों में भी पाई जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जहाँ स्वान्तः सुखायकी बात करते हैं तो साथ ही यह भी कहते हैं कि

जो प्रबन्ध बुध नहि आदरहीं ।

सो श्रम बादि बाल कवि करहीं ।।

(मानस)

सृजन में क्षमता-सामर्थ्य तथा प्रचार-प्रसार के बल पर तो सर्जक लोकप्रिय होता ही है। इसके साथ हम यह भी देखते हैं कि किसी सर्जक को उसके सृजनकर्म के एवज में मिलने वाला मान बहुमान, स्वागत, पुरस्कार के कारण भी उनके यश व लोकप्रियता में वृद्धि होती है। जैसे – प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं, आश्रयदाताओं की ओर से मिलने वाला सम्मान और आज नोबेल प्राइज़, बूकर प्राइज़, पद्‌मश्री, ज्ञानपीठ, मंगलाप्रसाद पुरस्कार तथा साहित्य अकादमियों – विविध संस्थाओं के पुरस्कार ऐसे ही कीर्तिमान हैं जो सर्जक की लोकप्रियता को विस्तार व स्थायित्व प्रदान करते हैं। कई बार यह देखा गया है कि किसी सम्मान अथवा पुरस्कार मिलने के बाद उस सम्मानित कृति की बिक्री बढ़ जाती है अथवा इन्टरनेट पर आम जनता उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए उत्सुक होती है। और इस तरह से उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है।  

मुद्रण कला का विकास, प्रकाशन संस्थाओं की संख्या में वृद्धि, पत्रकारिता का विकास व प्रचार-प्रसार, गोष्ठियों-संगोष्ठियों का विशेष आयोजन, सोशल मीडिया का वर्चस्व आदि की आज साहित्य के प्रचार व इसकी लोकप्रियता में महती भूमिका रही है। हम सभी इस बात से भली-भाँति परिचित है कि मानस की लोकप्रियता का एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा – उसका मौखिक रूप । उस समय में मुद्रण कला इतनी विकसित नहीं थी कि इतने कम समय में पूरे भारत भर में पहुँच सके, प्रचलित हो सके। लेकिन उसकी गेयता एवं मौखिक परंपरा के कारण तुलसी का यह महाकाव्य इतने कम समय में लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। लेकिन आज के इस इंटरनेट के दौर में पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ई-पत्रिकाओं, ब्लॉगिंग एवं ऑनलाइन संगोष्ठी-वेबिनार आदि के चलते बहुत ही जल्दी साहित्य न केवल देश-विदेश तक पहुँच जाता है बल्कि लोकप्रिय भी हो जाता है।  इतना ही नहीं यू-ट्यूब, पॉड कास्ट,ऑडियो बुक आदि माध्यमों का उपयोग करके आप किसी भी भाषा के साहित्य को सुन-देख सकते हैं।  हाँ, यदि वह साहित्य कलात्मकता एवं गुणवत्ता की दृष्टि से उम्दा हो और लोगों के हृदय को स्पर्श करता हो तो उसका लोकप्रिय होना तय है।  


डॉ. पूर्वा शर्मा

वड़ोदरा

 

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. संपादकीय......
    कुछ नया और नये ढंग से । बहुत अच्छा ।
    मैडम को बहुत बहुत बधाई ।

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  2. डॉ. पूर्वा शर्मा द्वारा संपादकीय "साहित्य की लोकप्रियता और लोकप्रिय साहित्य" में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की "साहित्य ही मनुष्य का लक्ष्य है" को अपनी भाषा में व्यक्त करते का सार्थक प्रयास किया है |
    मुकेश चौधरी, शोधार्थी हिंदी

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